स्वामी कुवल्यानंद : वैज्ञानिक योग के प्रणेता

स्वामी कुवल्यानंद : वैज्ञानिक योग के प्रणेता

बीसवीं सदी के प्रारंभ में योग विधियों पर शोध करके यौगिक चिकित्सा का अलख जगाने वाले स्वामी कुवलयानंद के गुजरे पांच दशक से ज्यादा बीत चुके हैं। पर उनकी ज्ञान-गंगा का प्रवाह अनवरत जारी है। उन्होंने जब योग-मार्ग पर यात्रा शुरू की थी तो योग जब साधु-संतों तक ही सीमित था और गृहस्थों के बीच उसको लेकर नाना प्रकार की भ्रांतियां थीं। पर जब उन्होंने आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर साबित कर दिया कि यह विश्वसनीय यौगिक चिकित्सा विज्ञान है तो देश-विदेश के लोग बरबस ही उस ओर आकृष्ट हुए। एक तरफ महात्मा गांधी ने उनकी योग विद्या का लाभ लिया तो दूसरी तरफ मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू और पंडित मदनमोहन मालवीय से लेकर देश-विदेश की कई हस्तियां स्वामी कुवलयानंद के कैवल्यधाम आश्रम पहुंच गईं थीं।

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गुजरात में 30 अगस्त 1883 को जन्मे उस महान योगी की 137वीं जयंती पर शत्-शत् नमन। वे आधुनिक युग के संभवत: पहले वैज्ञानिक योगी थे, जिन्होंने मानव शरीर पर यौगिक प्रभावों को जानने के लिए एक्स-रे, ईसीजी और उस समय रोग परीक्षणों के लिए उपलब्ध अन्य मशीनों के जरिए अपने ही शरीर पर अनेक परीक्षण किए। उन्होंने इन प्रयोगों के लिए खुद की प्रयोगशाला बनाई। प्रयोग सफल होने लगे तो अपनी संस्था कैवल्यधाम के लिए अधिकारपूर्वक पंचलाइन लिखा – “कैवल्यधाम, जहां योग परंपरा और विज्ञान का मिलन होता है।“

वाकई, उन्होंने 20वीं सदी के प्रारंभिक वर्षों में योग की परंपरा औऱ विज्ञान का ऐसा अद्भुत मिलन कराया कि एक मकान से शुरू उनकी यौगिक अनुसंधान को समर्पित संस्था कैवल्यधाम वट-वृक्ष की तरह अपने देश की सरहद के बाहर भी फैलती गई। महाराष्ट्र में मुंबई-पुणे मार्ग पर अवस्थित लोनावाला में उनकी संस्था का मुख्यालय ही एक मकान की चारदीवारी से निकलकर 170 एकड़ भू-भाग में फैल चुका है। कैवल्यधाम परिवार यौगिक व आध्यात्मिक गतिविधियों का ऐसा केंद्र है, जिसमें एक साथ योग विज्ञान सें संबंधित कई शाखाएं व प्रशाखाएं समाहित हैं। इससे इस संस्था का स्वरूप किसी विश्वविद्यालय जैसा प्रतीत होता है।

स्वामी कुवलयानंद के सकारात्मक ऊर्जा-संपन्न होने की झलक कम उम्र में ही मिलने लगी थी। वह स्कूली छात्र थे तो उनके सिर से माता-पिता का साया उठ गया था। अपनी मेहनत और लगन की बदौलत छात्रवृत्ति के हकदार बने और आगे की पढ़ाई की। संस्कृत का ज्ञान तो ऐसा था मानो पूर्व जन्म का संस्कार रहा हो। इतने मेघावी छात्र को नौकरी की कमी न थी। प्रध्यापक के तौर पर नौकरी की भी। पर भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के प्रति दीवानगी ने उन्हें श्रीअरविंद और बाल गंगाधर तिलक के साथ ला खड़ा कर दिया था। वे श्रीअरविंद के आध्यात्मिक विचारों से ज्यादा ही प्रभावित हो गए। महर्षि पतंजलि के योग-सूत्रों का सैद्धांतिक ज्ञान था ही। लिहाजा वे श्रीअरविंद की तरह ही इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि आदमी स्वयं की अनुभूति तभी कर सकता है जब चित्त-वृतियों का निरोध होगा, मन शांत होगा। ऐसा व्यक्ति ही कोई रचनात्मक कार्य कर सकता है। उन्होंने बड़ौदा में जुम्मादादा व्यायमशाला में प्रोफेसर राजरत्न मणिकराव से इंडियन सिस्टम ऑफ फिजिकल एजुकेशन की शिक्षा ली।

इसे प्रारब्ध कहें या उनके संकल्प व समर्पण का नतीजा, योग की प्रारंभिक शिक्षा मिलने के तुरंत बाद ही उन्हें  बंगाल के एक ऐसे संत का शिष्य बनने का सौभाग्य प्राप्त हो गया, जो वकालत छोड़कर भारत भ्रमण करते हुए नर्मदा के तट पर साधनारत थे। उनका नाम परमहंस माधवदास था और वे यौगिक अनुसंधानों के पक्षधर थे। शायद यही वजह है कि स्वामी कुवलयानंद योग विधियों के वैज्ञानिक अनुसंधान को लेकर इतने समर्पित हो गए थे। उन्होंने सबसे पहले बड़ौदा अस्पताल के साथ मिलकर अध्ययन किया था कि स्वास्थ्य लाभ में योग की क्या भूमिका हो सकती है। उसके नतीजे उत्साहजनक निकले। तब उन्होंने अपनी नई जिंदगी की शुरूआत लोनावाला में अनुसंधान केंद्र खोलकर शुरू की थी।

उन्होंने सबसे पहले उड्डियान, नौलि, सर्वांगासन आदि योग विधियों का मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव जानने के लिए शोध किया। थॉयराइड ग्रंथियों पर योग के प्रभाव संबंधी अध्ययन उस काल के लिहाज से अनूठा था। इन अध्ययनों के नतीजे उनकी त्रैमासिक पत्रिका के पहले अंक में प्रकाशित किए गए थे। रेडियो और सूक्ष्म तरंगों की प्रकाशिकी पर काम करने वाले प्रथम वैज्ञानिक डॉ॰ जगदीश चन्द्र बसु ने स्वामी कुवलयानंद के यौगिक अनुसंधानों को देखकर कहा था, “मुझे यह कहने में कोई संदेह नहीं कि आप सही रास्ते पर हैं।“ मौजूदा समय में इस अनुसंधान केंद्र को भारत सरकार के वैज्ञानिक संगठनों से लेकर विश्व विद्यालायों तक से संबद्धता प्राप्त है। 

यौगिक अनुसंधानों और उनके नतीजों के आलोक में यौगिक उपचारों से असाध्य बीमारियां भी ठीक होने लगी तो स्वामी कुवलयानंद की विश्वसनीयता और कैवल्यधाम आश्रम की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई। देश-विदेशों से बड़ी-बड़ी हस्तियां यौगिक उपचार के लिए लोनावाला आने लगी थीं। भारत के प्रमुख हस्तियों में मोतीलाल नेहरू, पंडित जवाहरलाल नेहरू, पंडित मदन मोहन मालवीय आदि को स्वामी कुवलयानंद ने योग सिखाया था। पंडित मालवीय तो लगभग एक सप्ताह तक आश्रम में रहकर ही योग साधना की थी। वे कैवल्यधाम के विश्वसनीय कार्यों से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने बीएचयू के साथ मिलकर कोई यौगिक परियोजना शुरू करने की इच्छा जता दी थी। इस मामले में इस संस्थान महत्व आज भी बरकरार है। मौजूदा समय में केंद्रीय आयुष मंत्रालय का सेंट्रल काउंसिल फॉर रिसर्च इन योगा एंड नेचुरोपैथी कैवल्यधाम संस्थान से मिलकर यौगिक अनुसंधान पर काम कर रहा है। इनके अलावा भी अनेक सरकारी गैर सरकारी एजेंसियों के साथ यौगिक अनुसंधान की परियोजनाएं इस परिसर में चलती रहती हैं।

पंडित जवाहरलाल नेहरू जब कैवल्यधाम आश्रम गए थे तो उन्हें पता चला कि स्वामी कुवलयानंद के पास विदेशी विश्वविद्यालयों से साथ जुड़कर काम करने के लिए कई प्रस्ताव आ चुके हैं। पंडित नेहरू बेहद चिंतित हो गए। डर था कि स्वामी कुवलयानंद कहीं विदेश न चले जाएं। लिहाजा, उन्होंने स्वामी कुवलयानंद को पूर्ण सहयोग का भरोसा दिलाया और आश्रम छोड़ने से पहले आगंतुक रजिस्टर में लिख दिया कि यदि स्वामी कुवलयानंद भारत छोड़ देंगे तो यह मेरे लिए दुखदायी होगा। पर आजादी के दीवाने कुवलयानंद विदेशी संस्थानों के मोहपाश में कहां फंसने वाले थे। वे जीवन पर्यंत भारत भूमि पर रहकर ही योग को समृद्ध करते रहे। 18 अप्रैल 1966 को उनका निधन हो गया था। पर योग विज्ञान के क्षेत्र में अपनी उपलब्धियों के कारण उनका नाम अमर हो गया। मानव जाति के लिए उनका कैवल्यधाम वरदान साबित हो रहा है।\

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

 

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